India Pakistan War News: IMF ने युद्ध के बीच क्यूं दिया पाकिस्तान को लोन? यहां जानें

India Pakistan War News: अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने युद्ध के बीच पाकिस्तान को क्यों दिया लोन? भारत को अब सिर्फ सैन्य ताकत नहीं, बल्कि पेशेवराना तरीकों से भी उठानी होगी आवाज!

नई दिल्ली: अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) का एक बड़ा फैसला भारत में चिंता और निराशा का कारण बना है। जब पाकिस्तान अपने पड़ोसी देश के साथ सैन्य तनाव में उलझा हुआ था, तब IMF ने उसे 2.4 अरब डॉलर के नए कर्ज कार्यक्रम को मंजूरी दी। यह फैसला कई गंभीर सवाल खड़े करता है। भारतीय अर्थशास्त्री और विशेषज्ञ दीपक मिश्रा का कहना है कि अब भारत को सैन्य शक्ति से आगे बढ़कर, पेशेवरता, सिद्धांतों पर आधारित मतदान और वैश्विक साझेदारियों के जरिए अपनी आवाज मजबूत करने की जरूरत है।

इस फैसले के बाद IMF ने एक जरूरी नोट में यह भी माना कि अगर इस पैसे का गलत इस्तेमाल हुआ तो उसकी साख को ठेस पहुंच सकती है। हालांकि, उसने यह भी कहा कि ‘हाल की घटनाओं से उसके कर्मचारियों के आकलन की मुख्य बात नहीं बदलती’।

बेचैन करने वाली सच्चाई: क्या वाकई निष्पक्ष हैं अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं?

IMF का यह कदम एक कड़वी सच्चाई की तरफ इशारा करता है। दरअसल, बहुत सी बड़ी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं हमेशा पूरी तरह निष्पक्ष नहीं रही हैं। पुराने दिनों में, जब अमेरिका और रूस के बीच तनाव (शीत युद्ध) चल रहा था, तब ये संस्थाएं अक्सर पश्चिमी देशों के हितों के साथ चलती थीं, क्योंकि वे इन संस्थाओं में सबसे ज्यादा पैसा लगाते थे।

अमेरिका, जो इन संस्थाओं को सबसे ज्यादा पैसा देता है, अक्सर अपने दोस्त देशों को फायदा पहुंचाने और अपने विरोधियों को नुकसान पहुंचाने के लिए अपनी ताकत का इस्तेमाल करता रहा है। शीत युद्ध खत्म होने के बाद भी यह सिलसिला जारी रहा।

  • साल 1994 में, IMF ने मैक्सिको को 18 अरब डॉलर का कर्ज दिया, जिससे अमेरिका के निवेशकों का पैसा सुरक्षित हो सका।
  • साल 2013 में, यूरोपीय देशों ने मिलकर IMF से ग्रीस को बहुत बड़ा कर्ज दिलवाया, ताकि उनके आसपास के इलाके में स्थिरता बनी रहे।
  • रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध में भी, अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने यूक्रेन को खूब पैसा दिया है, लेकिन रूस में अपना काम रोक दिया है।

पर पाकिस्तान का मामला है अलग: दो चौंकाने वाली बातें

लेकिन पाकिस्तान को दिया गया यह ताजा कर्ज पुराने तरीकों से हटकर है। पहली बात, शीत युद्ध के दिनों की तरह इस बार बड़े देशों ने (जो IMF में सबसे ज्यादा हिस्सेदार हैं) तटस्थ रुख अपनाया। दूसरी और सबसे ज्यादा चिंता वाली बात यह है कि यह कर्ज तब मंजूर हुआ जब दो देशों के बीच सीमा पर सैनिकों का आमना-सामना चल रहा था। यह एक खतरनाक मिसाल कायम कर सकता है।

बार-बार कर्ज लेने वाला पाकिस्तान: एक सवाल?

पाकिस्तान का IMF से बार-बार और लंबे समय तक कर्ज लेना भी एक बड़ा सवाल है। पिछले 25 सालों में पाकिस्तान ने IMF से लगभग 25 से 30 अरब डॉलर का कर्ज लिया है। इस तरह, वह IMF का चौथा सबसे बड़ा कर्जदार बन चुका है। चीन और सऊदी अरब जैसे देशों से मिलने वाली मदद के साथ-साथ यह कर्ज ही कई बार पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह ढहने से बचाता रहा है।

लेकिन सवाल यह है कि IMF एक ऐसे देश को बार-बार इतना बड़ा कर्ज क्यों दे रहा है जिसे प्रतिष्ठित पत्रिका ‘द इकोनॉमिस्ट’ अक्सर ‘खतरनाक रूप से अस्थिर’ और ‘नाकाम देश’ कहती रही है?

इसकी एक वजह IMF के कर्ज देने के नियमों में छिपी एक कमजोरी है। कई जानकारों का मानना है कि IMF अपनी साख बनाए रखने की जल्दी में अक्सर पुराने कर्जदारों के साथ ज्यादा नरमी बरतने लगता है। इससे एक गलत चक्र बन जाता है: ‘कर्ज देना → कार्यक्रम फेल होना → फिर से ज्यादा कर्ज देना’। इस चक्र को तोड़ने के लिए बाहरी दखल की जरूरत होती है। और यहीं पर भारत एक अहम भूमिका निभा सकता है।

भारत के पास क्या हैं विकल्प? कैसे बढ़ाएं वैश्विक प्रभाव?

अपनी G20 अध्यक्षता के दौरान भारत ने वैश्विक वित्तीय संस्थाओं में सुधार लाने की दिशा में कुछ अच्छे कदम उठाए थे। उसने एन.के. सिंह और लैरी समर्स की अगुवाई में एक विशेषज्ञ समूह बनाया था। इस समूह ने विश्व बैंक जैसी संस्थाओं की क्षमता और जवाबदेही बढ़ाने के लिए कई जरूरी सुझाव दिए थे। इन सुझावों पर अब विश्व बैंक में काम भी हो रहा है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि IMF इस सुधार प्रक्रिया से बाहर रह गया।

अब सवाल यह है कि भारत IMF जैसी संस्थाओं में अपनी पकड़ कैसे मजबूत करे और कैसे यह सुनिश्चित करे कि उसके राष्ट्रीय हितों को ठीक से सामने रखा जाए?

  1. विशेषज्ञों की टीम तैयार करें: भारत को अपने हितों की रक्षा के लिए इन अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में काम करने वाले बहुत ही योग्य और पेशेवर भारतीयों की एक मजबूत टीम बनानी होगी। अभी हमारे सबसे होनहार लोग इन संस्थाओं में जाने की ज्यादा कोशिश नहीं करते। अमेरिका (वाशिंगटन डीसी) या यूरोप (ब्रसेल्स) में नौकरियों को हमारी सरकारें बहुत जरूरी नहीं मानतीं। अकादमिक जगत या निजी कंपनियों के लोगों को इन पदों पर नियुक्त करना भी कम होता है। विदेशों में रहने वाले योग्य भारतीय पेशेवरों को भी अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। इस स्थिति को बदलना जरूरी है। हमारे प्रतिनिधियों को अच्छी तकनीकी समझ के साथ-साथ कूटनीतिक कौशल भी होना चाहिए।
  2. मतदान की रणनीति बदलें: भारत आज दुनिया में एक नई ताकत बनकर उभरा है, लेकिन IMF जैसी जगहों पर उसके वोट देने का तरीका और उसके साथी देश अभी भी पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं। हम पारंपरिक रूप से दूसरे विकासशील देशों के साथ खड़े होते आए हैं, जो हमारे औपनिवेशिक अतीत और ‘गुटनिरपेक्षता’ की सोच की देन है। लेकिन अब जब भारत दुनिया की एक अगुवा शक्ति बनना चाहता है, तो उसे अपनी रणनीति बदलनी होगी। ब्राजील और चीन जैसे देशों ने व्यावहारिकता दिखाते हुए कई बार वैश्विक दक्षिण (विकासशील देशों के समूह) से अलग हटकर भी अपने राष्ट्रीय हितों के मुताबिक वोट दिया है। भारत को भी हर मुद्दे पर अपने हितों के आधार पर फैसला लेना चाहिए। इससे वैश्विक महाशक्तियों के बीच उसकी विश्वसनीयता और सम्मान बढ़ेगा।
  3. वैश्विक साझेदारियां मजबूत करें: भारत को विकसित देशों (वैश्विक उत्तर) में अपनी बौद्धिक मौजूदगी बढ़ानी होगी। हालांकि हम वैश्विक दक्षिण के देशों का सही तरीके से समर्थन करते हैं, लेकिन विकसित दुनिया में हमारी सोच-विचार करने वाली संस्थाओं (थिंक टैंक) और नीति बनाने वालों की पहुंच हमारी बढ़ती महत्वाकांक्षाओं के मुकाबले कम है। विदेशों में भारत पर काम करने वाले बहुत कम केंद्र हैं, और भारतीय थिंक टैंक्स की दुनिया में बहुत कम पहचान है। G20 की अध्यक्षता के दौरान जो अच्छी भावना बनी है, उसका फायदा उठाते हुए भारत को दुनिया भर में शोधकर्ताओं और नीतिविदों का एक ऐसा नेटवर्क खड़ा करना चाहिए जो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हमारे हितों की वकालत कर सके।

निष्कर्ष: अब आवाज उठाने का समय

सीमा पर तोपों की आवाज थम गई हो सकती है, लेकिन दुनिया में अपनी जगह बनाने और प्रभाव बढ़ाने की कूटनीतिक लड़ाई अब भी जारी है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) का पाकिस्तान को युद्धकाल में कर्ज देना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि भारत को अब सिर्फ सैन्य ताकत पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। दीपक मिश्रा के शब्दों में, अब भारत को अपनी आवाज मजबूती से उठानी होगी – सैन्य शक्ति के दम पर नहीं, बल्कि पेशेवराना अंदाज में, अपने सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए मतदान करके और मजबूत वैश्विक साझेदारियां बनाकर। यही रास्ता है जो भविष्य में ऐसे विवादित फैसलों को रोक सकता है और भारत को वैश्विक मंच पर उसका उचित स्थान दिला सकता है।

(दीपक मिश्रा भारतीय अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद (ICRIER), नई दिल्ली के निदेशक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।)

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